तुझे नहीं मैं खुद को ढूँढता हूँ |
उजालो से डर लगता है, अंधेरों को ढूँढता हूँ |
ढूँढता हूँ उस शख्स को, जिसे तूने कभी चाहा था |
अपने वादे न निभा पाया, उस गुनाहगार को ढूँढता हूँ |
तुझे नहीं मैं खुद को ढूँढता हूँ |
उजालो से डर लगता है, अंधेरों को ढूँढता हूँ |
ढूँढता हूँ उन लम्हों को, जब करीब थे हम दोनो |
ढूँढता हूँ उन लब्जोँ को, जिन्हे उम्मीद थी मुझमें |
जिन पर साथ चले थे, उन राहों को ढूँढता हूँ |
बाँटी थी जो बातेँ, उन बातों को ढूँढता हूँ |
तुझे नहीं मैं खुद को ढूँढता हूँ |
उजालो से डर लगता है, अंधेरों को ढूँढता हूँ |
– गौरव संगतानी
बहुत बढ़िया.
चंद्रबिन्दु को बिन्दु की जगह इस्तेमाल कर रहे हैं, उसे जरा देखें. बारहा में ~M से चंद्रबिन्दु और M से बिन्दु लगता है.
उदाहरण के लिये: आपने लिखा है उजालोँ यानि ujaalo~M
-इसे होना चाहिये उजालों यानि ujaaloM
–सुझाव है, अन्यथा न लिजियेगा.
आप में बहुत संभावनायें हैं. लिखते रहें.
अनेकों शुभकामनायें.
बहुत ही शानदार कविता…
सच लिखा है… तलाश तो खुद का ही किया जाता है दूसरे अस्तित्व में भी…
यही तो जिज्ञासा बन जाती है,,, एक खुशी की तलाश!!!
bahut khuub……
बहुत सुन्दर…
कविता अच्छी है। लेकिन थोड़ा कनफ्यूजन है।
Arey Waah..!!!
Kya khoob likha hai aapne. Bahut sunder.
Likhte rahiye
S-sneh
Manmohan